शायर ए छंद रोमीके पश्चात छंदों के पितामह -पीराने छंद इक़्बाल नज़्मी भी बम्बई धाम जा पहुंचे और १२ साल पहले छोड़ी हुई सेठ पब्लिकेशन की लोकल फिर से पकडली। उनकी याद में दिल पाराः पाराः हुआ जाता है और दम हलक़ को आता है तो ग़ालिब का यह शेर नुत्क़ से गुज़रता है -
"निकाल अब इस को सीने से के दिले पुर अलम निकले
जो यह निकले तो दिल निकले जो दिल निकले तो दम निकले "
सेक्यूर छंद 'भगत छंद' तो पहले ही पेशवों की पनाह गुज़ीर हो गए और बकिया दो पूना रिटर्न का टिकट काट कर जन्मभूमी में दिन व्यतीत कर रहे है.
बाक़ी क्या लिखू।
"तालिफे नुस्खा हाय वफ़ा करा रहा था मैं
मज़मूँ ए ख्याल अभी फर्द फर्द था "
अल गर्ज़ क़िस्सा ए मुख़्तसर यह के हम पंछी अब डाल डाल के हो गए थे.
इसिलीए हालाते हाज़रा को मद्दे नज़र रखते हुए यह ग़रज़ पेश आयी के वर्चुअली ही सही फ़ी से हम पंछी एक डाल पर बैठ जाये। और सावन के उन स्वर्णिम क्षणों को याद करे जब मन के चंचल घोड़े की बाग़ थामे ख़यालो की दुनिया में हम सूरज के सातवे घोड़े से रेस लगाते। प्रेम सागर की तह में जाकर फिर शिष्ट संमत आचरण की च्येष्टा करें। मन की कब्रिस्तान में दफ़्न उन यादों का आवाहन करे जिन्होंने यौवन के उन दिनों में हमारे ग्यान चक्षुओं को उस अद्भुत दुनिया से परिचित कराया था जिससे इस समाज के स्वयंघोषित प्रेमीजन हमेशा अनभिज्ञ रहते है।
तो चलो, कनु (तनु ) काल की उस अनंत पगड़न्ड़ी पर…….
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